tag:blogger.com,1999:blog-77685635771455905902023-06-20T05:43:30.495-07:00चलचित्र विमर्शanandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-7768563577145590590.post-29387242991148616372009-02-13T13:32:00.000-08:002010-03-21T13:12:48.780-07:00ब्रू का नया विज्ञापन बनाम पुरूष मानसिकता<span class="Apple-style-span" style=" white-space: pre-wrap; -webkit-border-horizontal-spacing: 2px; -webkit-border-vertical-spacing: 2px; "><span class="Apple-style-span" style="font-size:small;"><span class="Apple-style-span" style="font-family:verdana;">आज टीवी पर ब्रू काफी का नया विज्ञापन देखा. एक पति को अपनी पत्नी के पैर दबाते देख अच्छा लगा. वैसे तो इन विज्ञापनों का मुख्य उद्देश्य अपना उत्पाद बेचना होता है, पर कहीं न कहीं इनसे पुरूष प्रधान समाज की मानसिकता पर प्रभाव तो पड़ता ही है. जिस समाज में पत्नी का पैर पति से छू जाना ही पाप समझा जाता हो, वहाँ ऐसे विज्ञापन कुछ राहत तो देते ही हैं. खासकर उनलोगों को जो अपनी पत्नी को सम्मान देते हैं, उसका ख्याल रखते हैं और बदले में अपने मित्रों से सुवचन सुनते हैं. जी हाँ, हमारे समाज में अपनी पत्नी को अपने समान स्थान देने वालों को "बीवी का गुलाम ",बीवी के पल्लू में रहने वाला "कुक्कुर "और देहात में "मेहर भस" तक कहा जाता है. ऐसे में यह विज्ञापन देखकर वो तो बेचारा खुश ही होगा . </span></span></span>anandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7768563577145590590.post-33889043433750562172009-01-19T09:59:00.000-08:002009-01-19T10:33:47.761-08:00दिल कबड्डी : कन्फ्यूजनपिछले दिनों इस अजीब से शीर्षक वाली फ़िल्म को इसके कलाकारों के कारण देखा .फ़िल्म ने निराश नहीं किया ,परन्तु ये कहा जा सकता है कि इसे सिर्फ़ महानगरों के दर्शकों के लिए बनाया गया है .फ़िल्म के पोस्टर में लिखा हुआ था कि यह विवाह संस्था पर प्रश्न उठाती ,पर इसे देखकर लगा कि यह पति -पत्नी के बीच के यौन संबंधों के बारे में है .बहरहाल,इसमें सेक्स से सम्बंधित फंतासियों का ज़बरदस्त मजाक बनाया गया है ,जो कि आजकल के युवाओं का मनपसंद शगल बनता जा रहा है और जिसके बारे में इंडिया टुडे और आउटलुक जैसी पत्रिकाएं आए दिन सर्वेक्षण निकालती रहती हैं .परस्पर संबंधों को लेकर लोगों में व्याप्त दुविधा को भी खूबसूरती से दिखाया गया है .कोंकणा सेन ,सोहा अली खान ,इरफान खान ,राहुल बोस जैसे कलाकारों ने अपनी प्रतिभा का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया है और पायल रोहतगी ने यह सिद्ध कर दिया है कि वो सिर्फ़ अंग प्रदर्शन कर सकती हैं .जिन लोगों को ऑफ़ बीट फिल्में पसंद हैं वे इसे अवश्य देखें ,परन्तु गंभीर फिल्मों के शौकीन बिल्कुल न देखें .मुझे इसमें इरफान कि कॉमेडी बहुत अच्छी लगी .उनके ऊपर डिस्को थेक वाला फालतू गाना न फिल्माया जाता तो अच्छा होता .खैर डायरेक्टर कि मर्ज़ी .anandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7768563577145590590.post-12002100414468577722009-01-17T12:19:00.000-08:002009-01-17T12:44:18.997-08:00ओये लकी लकी ओये:हलकी फुलकी हास्य फ़िल्मगजनी और रब ने बना दी जोड़ी जैसी बड़ी फिल्मों के बीच एक कम बजट की हास्य फ़िल्म ने धीरे -धीरे अपनी जगह बना ली .न इस फ़िल्म को देखने के लिए दिमाग़ पर अधिक ज़ोर लगाना पड़ा न दिल पर (जैसा कि ऊपर की दोनों बड़ी बजट की फिल्मों में क्रमशः करना पड़ा ),फ़िर भी स्वस्थ मनोरंजन की दृष्टि से यह एक सराहनीय फ़िल्म कही जा सकती है .हालाँकि फ़िल्म का उद्देश्य कोई संदेश देना नहीं है फ़िर भी इसमें निर्देशक ने एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की उन परिस्थितियों को व्यंग्यपूर्ण ढंग से दिखाया है ,जो एक किशोर को चोर बनाने के लिए जिम्मेदार हैं .हमारे समाज में बढ़ता वर्गभेद किस प्रकार की विकृतियों को जन्म देगा ,इस पर रूककर सोचने की ज़रूरत है .इसके अतिरिक्त फ़िल्म एक ईमानदार चोर और बेईमान व्यवसायी को दिखाकर उनकी पोल भी खोलता है .अभय देओल अपने व्यक्तित्व के अनुसार चुन-चुनकर भूमिकाएं कर रहे हैं .एक बात समझ में नहीं आयी कि फिल्मकार परेश रावल से कई भूमिकाएं करवाकर कोई नया प्रयोग करना चाहता है या फिल्मोद्योग में कलाकारों की कमी हो गई है .अंततः फ़िल्म फुर्सत में देखने लायक है .anandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7768563577145590590.post-76025663807797154932009-01-16T09:33:00.000-08:002009-01-16T09:55:09.122-08:00दसविदानिया:अधूरी ख्वाहिशों की कहानीदसविदानिया एक आम आदमी की अधूरी ख्वाहिशों की कहानी है .इंसान अपनी दाल-रोटी की चिंता में अपनी छोटी -छोटी खुशियों से समझौता करता जाता है ,अपने बचपन के दोस्तों को भूलता जाता है .ये बातें वैसे तो बहुत छोटी लगती हैं ,लेकिन जब मौत सामने खड़ी हो तो ये ही बातें ज़िन्दगी की बड़ी खुशियों से भी कीमती हो जाती हैं .दसविदानिया का निर्देशक सबके सामने एक प्रश्न रखता है कि अपनी मौत से पहले वो अपनी कौन सी इच्छा पूरी करना चाहेंगे .रजत कपूर एंड कंपनी ऐसी ही हलके -फुल्के विषयों पर फ़िल्म बनाने में माहिर हैं .अपने इस नए प्रयास के उन्हें साधुवाद .anandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7768563577145590590.post-88369518988697852772009-01-12T12:07:00.000-08:002009-01-12T12:40:02.425-08:00मुम्बई मेरी जान :एक जीवंत फ़िल्मगत दिनों बिना किसी शोरगुल के एक बेहतरीन फ़िल्म आकर चली गई .हमलोगों में से कुछ ही लोगों ने इसे देखा होगा .मुझे भी दो दिन पहले ही यह सौभाग्य मिला और तभी मेरे मन में ब्लॉग लिखने का विचार आया ताकि मैं ऐसी फिल्मों के बारे में लोगों से चर्चा कर सकूँ जिनका प्रचार अधिक नहीं हो पाता."मुम्बई मेरी जान "बेशक एक दिल को छू जाने वाली फ़िल्म है .यह मुम्बई की लोकल ट्रेनों में हुए बम -विस्फोटों की पृष्ठभूमि पर बनाई गई है , जिसमें इस आतंकी घटना के बाद लोगों में व्याप्त डर ,दुःख ,निराशा और क्षोभ को बड़े ही सजीव ढंग से फिल्माया गया है .फ़िल्म का निर्देशन काबिलेतारीफ है .एक चायवाले के रूप में इरफान खान ने बेहतरीन अभिनय किया है . के के मेनन ,माधवन ,परेश रावल और सोहा अली खान ने भी अपनी भूमिका बखूबी निभाई है .अंत में , फिल्मकार ने आतंक से उपजी विषम परिस्थितियों से बचने के स्थान पर उससे जूझने का संदेश दिया है .साथ ही नफ़रत के स्थान पर प्रेम और सहानुभूति की भावना से आपसी वैमनष्य को भुलाने की बात भी कही है .यह फ़िल्म एक बार तो देखनी ही चाहिए .anandhttp://www.blogger.com/profile/05277836674260246080noreply@blogger.com0